Monday, September 11, 2017

आह्वान (खिस्सा अखनि धरि )

आह्वान


ई केहन इतिहास अछि जकर एक सिरा सुदूर उत्तर, जम्मू, मे संरक्षित पांडूलिपी'क आखर दिस ल जाइत अछि: मिथिलाक्षर मे समय संग भगजोगनी जेकां नुका छिपी खेलायत चारि गोट आखर: विक्रम संबत् 1519, चैत्र पूर्णिमा'क मंगल तदनुसार भेल 16 मार्च ईस्वी सन् 1462. हिसाब लगेबा मे धुर्झरी के छण नहि लगलैक। आ एहि इतिहास'क दोसर सूत्र... चमैनिया डाबर दिस। एक दिस संस्कृत'क गूढ़ नव्य न्याय'क ग्रंथ भेदप्रकाश'क अंत में लिखल ई दुर्लभ आखर। नामी नैय्यायिक शंकर मिश्र लिखित आ हुनकहि समय मे काशी मे तैयार कैल पांडूलिपी'क ई प्रति।
आ दोसर दिश नामहीन चमैन। की नाम हतैक एहि चमैन'क? धूर्झरी'क मोन पांडूलिपी आ पोखर'क बीच भटक' लागल। कोन छोड़ पकड़ी आ कोन सिरा के आगू बढ़ाबी?
एक दिस इतिहास, संस्कृत, शब्द आ न्याय त दोसर दिस समय के धंगैत गाम'क बीचोबीच साक्षात ठाढ़ नामहीन चमैन'क पोखरि। इतिहास प्रमाण तकैत छैक। कोनो आखर, एक गोट सूत्र, कोनो तारीख। चमैन के इतिहास आ साक्ष्य से कोन प्रयोजन? ओ गाम'क लोक'क कष्ट दूर कर' चाहैत छलीह। परसूति गृह मे सदिखन असहनीय पीड़ा से ओकर सामना होईत रहलैक। कहियो अप्पन आन के भेद नहि भेलैक। जे एहि जगत मे नव जीवन'क आगमन'क लेल दिन राति मे अंतर नहि कयलक ओकरा लेल इतिहास कियै महत्व रैखतैक? जकरा पर समूचा गाम विश्वास करैत छैक ओकरा लेल इतिहास'क प्रमाण कियैक कोनो अर्थ राखत? ओ गाम'क उपकार कर चाहैत छलीह। चमैन लेल पुण्य' क काज छलन्हि पोखेरि खुनायब। पोखरि रहल गामहि, शब्द टहलैत रहल इतिहास मे... काशी आ जम्मू आ कत' कत'।

डाबरि या पोखरि? धूर्झरी'क मोन मे कतहु कोनो तार एक दोसर से ओझड़ा गेलैक, एक टा चित्र बिजलोका जकां चकमकेलैक। चमैन चिंतित छथि, पोखैर त खुना गेल आब यज्ञ कोना होयत? जाबत पर्यन्त यज्ञ नहि ताधरि जैठि नहि आ ता धरि पोखरि नहि।
दरभंगा'क पच्छिम कबड़ाघाट मे बागमति'क किनार बैसल धूर्झरी अस्ताचलगामी सू्र्य के देख रहल छथि।बागमति'क ओहि पार बाध आ तकर अंत करैत बांस'क क्षितिज। सूर्य बांस'क फुनगी पर चढ़ि आन कोनो जगत हेतु उतरि गेल रहथि। चिड़ै चुनमुनि'क कलरब सेहो शनै शनै मंद पड़ैत जा रहलैक। लेकिन धूर्झरी'क अंत:करण शांत नहि भ रहल छलैक। ई जगह ओकरा सबसं प्रिय। अतऽ अयला पर छण मे दिन'क संपूर्ण थकान समाप्त भ जाइत छलैक ओकर। ई अछिये एहन अदभुत स्थान। बागमति के जेना हठात् क्रीड़ा सूझल होन्हि आ ओ अर्ध बृताकार नृत्य क लेलीह। बच्चा मे भूगोल'क मास्टर सिंह साहेब गोखूर झील पढ़ौने रहथि। जहिया मिथिला रिसर्च इंस्टिच्यूट आयल आ बागमति'क ई नृत्य के देखलक मोन भेलैक चिकैर के भूगोल'क सिंह साहेब के कबड़ाघाट बजा ली।

अनाथ धूर्झरी पिछला डेढ़ बरख सं नित्य प्रति एहि बागमति' क किनार बैसि सूर्यास्त देखि रहल छथि। सूर्य के बांस'क फूनगी पर चढ़ा दक्षिण मुहें नदी'क संगे संग हल्लुक डेगे बिदा भेलाह। दोसर कात कोनो चिता सं अग्नि शिखा अस्ताचलगामी आकाश'क लालिमा संग मिल सिनुर'क होली खला रहल छल।

क्लांत मन नेने धूर्झरी अपन डेरा आबि गेलाह। लालटेन'क रोशनी मे ओहि सांझ धूर्झरी डायरी मे तारीख दर्ज कयलन्हि: 17 अक्टूबर 1957.

आह्वान (गतांक सँ आगू)

शांत नीरव राति'क पहिल पहर। टिटहरी आ झिंगूर'क आवाज'क अतिरिक्त बीच बीच मे बागमती'क ओहि पार सं गीदऽर'क हुआ हुआ ...आ संग दैत बंसबीट्टी मे आबि बाट बिसरल हवा'क स्वर। लेकिन धूर्झरी'क मन खिन्न आ नीन त जेना टाबर चौक पर सरस्वति मिष्टान भंडार'क पूरी जिलेबी खा ओतहि सुति रहल होअ, कबड़ाघाट पहुंचबाक गप्प आ आश त खैर के कहय।
लालटेन'क बाती तेज क धूर्झरी टेबूल पर डायरी खोलि लेलक। करची कलम सं रॉयल बलू मोती झहरऽ लगलैक...

17 अक्टूबर 1957.

भट्टाचार्य बाबू के चमैन लेल 'drummer woman' शब्द नहि लिखबाक चाहैत छलन्हि। ई सर्वथा अनुचित कयलन्हि ओ। आई हुनक किताब'क प्रेस कॉपी देखि जतेक मन आह्लादित भेल भोरे भोर, ततबे दुपहरिया तक जैत जैत पन्ना पलटैत पलटैत मन क्लांत भ उठल।मन के कतेक बुझबैत छियैक, तर्क आ व्यवहारिकता'क दुहाई दैत पड़तारैत छी आ मोन एहन जे जिद पर अड़ल अछि। एकर सेहो गलती नहि। कतेक हुलसि के भट्टाचार्य महोदय के अप्पन गाम'क चमैनिया डाबर'क खिस्सा सुनौने छलियन्ह। अयाची मिश्र'क सबा कट्ठा बारी, शंकर'क जन्म आ महाराज'क समक्ष हुनक बालोऽहं प्रकरण, चंद्रहार पुरस्कार'क गप्प आ चमैनि द्वारा जलाशय खुनयबा'क खिस्सा। सबटा त सुनौहने छलियन्हि। आ सुनि हुन नेत्र सेहो पसरले रहि गेल रहन्हि। तखनि फेर चमैनि नहि लिखि ड्रमर वोमन लिखबा'क की कारण? हं। मोन पड़लैक। खिस्सा सुनि लेलाक अगिला भोर मे भट्टाचार्य बाबू धूर्झरी के तकैत आयल रहथि आ कहने छलाह जे काल्हि सरिसब बला जे खिस्सा अहां कहने रही से त अदभुत लेकिन ई मात्र जन श्रुति मे अछि या केओ एहि पर किछु कलम सेहो चलौने छथि? हमरा गलत जूनि बुझु। हम एतिहासिक प्रमाण अथवा दस्तावेज'क गप्प नहि पूछि रहल छी। जखनि पोखरि गाम'क मध्य स्वयं अछि त एतिहासिक प्रमाण'क कोन जरुरत। तथापि संभव अछि जे केओ एहि जन श्रुति के कहियो लिपीबद्ध सेहो कयने हेताह। कि अहांके एहि संबंध मे सेहो किछु जानकारी अछि। अहां से अतेक अल्प समय मे जतेक हम प्रभावित भेलहूं अछि आ अहांक प्रतिभा'क जतेक बखान एतय अन्य सबहक मुंह सं सुनल सेह एहि जिज्ञासा'क कारण सेहो।

हम गदगद भ गेल रही हुनक बिनम्रता देखि। एहन उदभट विद्वान आ हमरा सन तुच्छ व्यक्तिक मुक्त कंठे प्रशंसा। जन्म धन्य भ गेल, सैह प्रतित होइत छल ओहि दिन। हुनक ई प्रश्न'क उत्तर मे एतबे कहलियन्हि जे अहां मात्र एक छण दिअ हमरा आ दोसर पल आँखि झपकबा सं पूर्बहि म.म. सर गंगानाथ झा संपादित शंकर'क वादविनोद हुनक समक्ष क देल। कहने छलियन्हि जे अपने ई देखल जाऊ। 

...आ तखनहु भट्टाचार्य बाबू ड्रमरवोमन लिखलथि। से कियैक? की हुनका वाद विनोद'क 'चर्मकारिण्यास्तडाग' नहि देखयलन्हि? चमैनि लिखबा मे कोन आपत्ति छलन्हि जे ई लिखलाह? चमैनि शब्द त आनो आन विद्वान लोकनि दर्ज कयने छथि बंगाल आ बिहार'क 'दाई' या 'धाय' हेतु। नहि त सामान्य प्रचलित शब्द midwife लिख देबा मे कोनो हर्ज नहि। फेर, ई किएक? 

लेकिन, एहि क्लांति सँ हमर ध्यान मे एकटा जिज्ञासा आकार ल रहल अछि, चमैन के छलीह? हुनक जाति की छल? आ हुनक नाम ? कोना पता चलत? 

लालटेन'क व्याकुल बाती कहैत अछि जे आजूक डायरी इंट्री के विश्राम देल जाय।

आह्वान (गातांक सं आगू २)

24 सितंबर 1957

आई नचिकेता कका सं बहुत समय बाद भरि पोख गप्प भेल। चमैन ल क जे मोन मे व्याकुलता छल तहि कारण पुस्तकालय आ ओहुना हमर व्यवहार मे उद्धिग्नता जे आबि गेल रहय, पिछला एक सप्ताह सं, ताहि सँ कका'क स्नेह बत्सल ह्रदय आ सतत साकांक्ष आँखि भला कतहु अनभिज्ञ रहि सकल छल। ई अनाथ के सरिसब सँ दुलार से अनने त रहथि प्रो.अनंत बाबू, लेकिन अनंत बाबू'क संग अन्य दू टा पितृतुल्य महान आत्मा कबड़ाघाट' क अहि मैथिली रिसर्च आ पोस्ट ग्रेज्युएट इंस्टिच्युट मे पहिल सांझे से अपन संरक्षण आ स्नेह'क छाया तर मे हमरा सन अभागल के ल लेलथिन्ह: एक त डायरेक्टर वैद्य साहेब आ दोसर यैह नचिकेता कका। 

नचिकेता कका भरि सप्ताह हमर बेचैनी सं परिचित छलाह। लाइब्रेरी दिस हमर भागम भाग देखैत रहलथि। कखनहु कखनहु हमर बेचैनी हुनक चेहरा पर मुस्कान'क अदृश्य रेखा सेहो खींच दैत छल, से हमरो से नुकायल त नहिये रहय। लेकिन, हम नोट लैत रहलहूं। बताह जकां बिना कोनो दिशा आ बगैर कोनो निर्देश'क। पैराग्राफ पर पैराग्राफ, उद्दरण पर उद्दरण। लेकिन ओझरायल सूत्र सोझरेबाक नाम नहि ल रहल छल। 

आई सायंकाल, टहलऽ बहरयलहूं। पाछू से नचिकेता कका'क आवाज आयल, 'धूरी, कनी थमह। हमहूं चलै छी'।

बाट मे हम चमैन बला अप्पन जिज्ञासा कहलियन्हि। कका स्वीकारलथि जे हुनका हमर बेचैनीक भान त छलन्हि लेकिन विषयक अंदाज नहि रहन्हि। भालसरि तर खसल फूल बिछैत बजलाह, 'सुनह, दू टा सूत्र पकड़। एक त, 'चमैन' शब्दक पाछा नहि भाग। मन मे रखने रह आ संदर्भ भेट' त लिख लेल कर। लेकिन जन्म सं संबंधित जे सामाजिकता छैक, जे संबंध, जे लोक बेद भ सकैछ सब दिस अपन दिमागक घोड़ा के दौड़ा दियौ। आ लोक बेद क मतलब खाली लौकिक एवं बैदिक बिधि व्यवहार तक सीमित नहि राख। हम जखन लोक बेद कहै छी त एहि मे लोक मतलब मनुख, जाति, संप्रदाय आ हिनक अनुभवक संसार आ दोसर कात ज्ञानक भिन्न भिन्न परंपरा। ई दुनुक संयोग भेल लोक वेद। त जन्मक प्रक्रिया मे शामिल प्रत्येक व्यक्ति आ प्रत्येक कर्म, प्रत्येकव्यवहार पर ध्यान लगाऊ।

नचिकेता कका' क सुझाव अव्यवहारिक लगैतो चुपचाप मुड़ी डोलबैत रहलहूं।

ओ अपन धून मे मग्न छलाह। 'हं त दू टा सूत्र मे ई त भेल खेत तैयार केनाई। देखह, चमैनक लेल गंगानाथ झा सेहो चर्मकारिणीक जखनि उपयोग कयने छथि त अहि समाजक एकटा काज ढोल ताशा बजौनै सेहो त होइते छैक। अत: यदि दिनेश भट्टाचार्य चमैनक लेल ड्रमरवूमन लिखलथि त कोनो बेजाय गप्प त नहि। लेकिन, अतऽ विचारैक गप्प ई जे चर्मकारक स्त्री जे आजुक समय मे आ गंगानाथ बाबूक समय मे चमैनक रुप मे जानल जाईत रहल से भेल एकटा सामाजिक तथ्य। लेकिन ई आवश्यक नहि जे यैह सामाजिक तथ्य पंद्रहम सदी'क मैथिल समाज लेल सेहो सत्य होय, सटीक होय। त पंद्रहम सदी मे चमैन के कोनो खास जातिवाचक संज्ञाक रुप मे देखल जाय या ई कार्यवाचक शब्द छल?

ई त भेल एकटा मोट सूत्र। दोसर, ई देखह जे दाय , धाय आ धारित्री जिनका लेल नैतिक साहित्य मे अतेक आदर आ सम्मान छैक से नारी के निम्न जाति सं केना जोड़ि देल गेल। परसूती गृह, सौरी के जन्म सं संबंधित लोक सबके समय के अशुद्द कियै बुझऽ लगलैक ई समाज। चमैन के ल के जे सामाजिक जातिगत उपेक्षाक बोध एहि सदी मे देखैत छियैक की यैह बोध पहिनेक काल मे सेहो रहल? यदि नहि त आजुक सामाजिक मान्यता'क जड़ि मे की अछि? देखह, हम ई कथमपि नहि कहि रहल छी जे पहिने वर्ण व्यवस्था नहिं रहल। से त सदिखन रहल। समाज जाति मे बिभाजित हरदम रहल। तथापि हम ई सबाल उठबै लेल कहैत छी त एकर किछु कारण।

नचिकेता कका आब थाकि गेल रहथि। अंत मे कहलथि जे एक दिस चरक आ सुश्रुत तक धूमि आबह। आ, दोसर दिस ई हाल महक अंग्रेज सरकार , अंग्रेजी विज्ञान आ चिकित्सा एवं स्वास्थ्य' क क्षेत्र मे एहि साम्राज्यवादी सरकार'क नीति दिस देखह। बहुतो रास गांठ खुजैत जेतौक, रास्ता भेटऽ लगतौक।
(क्रमश:)

1अक्टूबर 1957

नचिकेता कका... हमरे सन अनाथ कहबैन त से सत्ते नहि होयत। लेकिन, जेना ओ अपनहु हठात बाजि उठैत छथि जे जकरा यम के दान क देल गेल होय, ओकर कथी से मोह रहि जेतैक। नामानुकुल निर्मोही।

आई सायंकाल सं पूर्बहि, कहि त बेरू पहर उपरांतहि अयलाह। हम लाइब्रेरी मे चमैनि'क संबंध मे नोट्स लेबा मे ध्यानस्थ छलहूं। कहियो एना मे ओ टोकेत त नहि छथि लेकिन आई कदाचित देखैत रहलाह ताबत धरि जाबत तक हमर एकाग्रता भंग नहि भ गेल। अपना अपरतीब सेहो लागि रहल छलन्हि, हमर चेष्टा मे विध्न उत्पन्न करबा लेल। तथापि, ओ ठाढ़े रहला। आब पश्चाताप हुनक मोन सं बहरा हमरा मे प्रवेश क गेल। पुछलियैंहि, 'कका, कखैन अयलहुं? कतेक काल से ठाढ़ छी? पहिने किएक नहि कहलौंहुं? ' 

कका कहलथि जे हमरा एहि तरहे ध्यानाग्र देखि टोकैक मोन नहि कयलकन्हि। परन्तु आई मोन क्लांत भ गेल छलन्हि ताहि कारणे एतहि थमकि के रहि गेलाह। 

हमरा मोऽसि दान'क ठेपि बंद करैत देखि कहलथि असंकोच सेहो होमय लगलन्हि। बजलाह, ' नहि तों काज करऽ| हम त अहिना बौऽआ रहलहुं, काल'क अनेरुआ जकां।'

हमरा कनियों भांगठ नहि रहि गेल जे आई नचिकेता कका उदास छथि। हमहु थाकि गेल त छलहुंए। हुनक मोन'क गप्प पुछलियन्हि, 'टहलै लेल चलब, कका?' हुनक चेहरा पर प्रसन्नता आबि गेलन्हि। हम दुनु गोटे चलैत गेलहुं। बागमति'क काते कात त नहि, कथापि नदि'क डांड़ धेने। लेकिन, शहर दिस। फटेसरनाथ फेर पंचानाथ आ आरो आगू... हजारीनाथ घरि।
नचिकेता कका सुनबऽ लगलाह अपन जीवन'क किस्सा। यम के दान दे देल गेल जीवन'क सत्य। बटगमनी जेंका मोहक, भालसरि फूल सन मधुर गमकैत लेकिन दंशित जीवन यात्रा। ओ नचिकेता मोन आई भटकैत सरिसब पहुंच गेल छल। कहलन्हि, 'जहिया से अहां चमैनि'क जिज्ञासा पसारलहूं, सरिसब बड्ड मोन पड़ैत अछि। ओतहि रहि हम हॉयर सैकेंड्री कयने रही। सरिसब स्कूल सं। पंडित भवनाथ बाबू, हेडमास्टर साहेब'क स्नेहाशीष से। हुनकहि ओहिठाम रहि विद्यार्जन कयल, मनुख बनलहुं। नचिकेता त सदिखन रही परंतु ओहि परिबार'क लेल रही 'विद्यार्थी'। यैह नाम, यैह परिचय। परंतु, ई अनाम 'विद्यार्थी'क संबोधन, एहि संबोधन'क स्नेह बत्सलता जीवन मे फेर कहियो कान नहि सुनलक। आह सरिसब!

2 अक्तूबर 1957
अहिना समय रहल होयत या वायु मे किंचित शीत’क अंश मे वृद्धि भ गेल हेतैक जखैन शंकर’क डीह पर उदयन’क न्यायवार्तिका तात्पर्य टीका के लिपि बद्ध कयल गेल होयत? की ओ अपनहि लिखने हेताह अथवा हुनक कोनो शिष्य लिपि-वद्ध कयने हेताह? साल 1488 आ स्थान 'सरीसप गाम’क चौपादी टोल' महामहोपाध्याय संमिश्रश्रीमस शंकर’क डीह. टीका के लिख लेलाल’क बाद स्थान आ वर्ष दर्ज क देल गेल.

ई कोनो स्थापित प्रक्रिया त नहिये छल ओहि काल में. लेकिन, शंकर’क लेल कोनो नव सेहो त नहिये. भेद्प्रकाश’क अंत त दिनांक’क संगे कयने रहथि 1464 ईश्वी मे. लेकिन ओ त काशी मे आ ई सरीसप मे. देश-काल के अंकित करबा लेल अतेक मुश्तैदी...आ अंग्रेज सब कह लागल जे भारत मे इतिहास वोध नहि रहय.

खैर, नेपाल बला मैन्यूस्क्रिप्ट’क एक गोट रोटोग्राफ एहि संस्थान अनबाक हेतु वैद्य साहेब कतेक परिश्रम क रहल छथि. हमर सबहक हृदय व्याकुल अछि देखबा लेल ओहि आखर के ...अयाची डीह’क प्राय: सबसँ पुरान साक्ष्य. यदि इतिहास साक्ष्य मात्र’क भाषा बुझैत छैक त लिय सेहो.

लेकिन, ई त विषयांतर भ गेल. हम ता सांयकाल सं किछु आर सोचैत रही. हमर मोन मे त मणि मयूख घर क लेने अछि. दुनिया जे कह्य, शंकर लेल ता हुनक सर्वश्रेष्ट कृति. परन्तु, कृति के यथोचित सम्मान नै भेटै त दुःख त स्वाभाविक. महामहोपाध्याय’क उपाधि’क कोण मुल्य, एहन उद्भट विद्वान् लेल. ई सब त सभा पंडित के शोभा देत छैक. जिनका पांचे बरख’क अवस्था सं महाराज द्वारा मुक्त हाथे पुरस्कार भेटैत रहल होय ओहि मनुख के पुरस्कार आ उपाधि से की मोह? तथापि, सम्मान’क आदर त सर्वथा आवश्यक.अन्यथा सरस्वती’क अपमान. परन्तु असल प्रतिष्ठा त विद्वजन’क कंठे बहरेला से. आ मणि मयूख के गंगेश उपाध्याय’क कोनो शिष्य एको बेर चर्चा तक नहि कयलक अटक वर्ष बीतलाक उपरान्तो. उपेक्षा’क दंश सहैत शंकर के के बोल भरोस देने हेताह?

प्रायः पित्ती जीवनाथ. ओहो त कहियो चर्चा मे नहिये अयलाह. परम नैयायिक आ तहु सं एक डेग आगु अद्भुत शिक्षक. बारह वर्ष’क अवस्था मे शंकर के अपना संग काशी नेने चलि जैत रहलाह. अपन जेठ भाई के कहलखिंह जे कशी जेताह त ओत अनेक प्रांत से विद्वान् के ईहो देखथिंह आ जगत सेहो हिनका देखत. हिनक विद्वता के चिन्हत. आ शंकर लेल तेरह्म बरख सरिसब-त्याग रुपें बिसा गेल.

कहाँ घुरि आबि सकलाह अगिला बारह बरख धरि शंकर सरिसप’क चौपादी टोल? गाम जे एक बेर छूटैत छैक त दुनिया कसिया के पजिया लैत छैक अपन चंगुल मे। छटपटाईत राहि जाइत अछि मनुख अहि दुनिया दारिक जाल मे ओझरा के । लेकिन कथी लेल कोई ओकर चिचियेनाई के कान देतैक?

सरिसब पाही / Sarisab Pahi

अपने गांव से दूर रहने का इतना दुख कभी नहीं हुआ जितना आज हो रहा है.
बिहार के मधुबनी जिले का सरिसब पाही गांव. यहां चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध -पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में पंडित भवनाथ मिश्र है जिन्हे उनके कभी न याचना करने के स्वभाव के कारण अयाची के नाम से जाना गया.अपने सवा कट्ठे के बासडीह से उपजे शाक सब्जी से गुजर बसर कर इस अयाची दंपत्ति का जीवन यापन हुआ करता.
यूं तो संस्कृत के किताबों में ब्राह्मण हमेशा निर्धन ही चित्रित होते आये हैं परंतु ब्राह्ण इन्हीं दंत कथाओं और इसी धार्मिक साहित्य में अपने असंतुष्ट एवं याचक प्रवृति के लिये अभिशप्त भी रहा है. ऐसे में अयाची होना और विद्वता होते हुए भी राजदरबार से दूर, याचन से दूर, लक्ष्मी से दूरी जिंदगी भर निभा जाना मामूली तो नहीं. इस अयाचना के स्वाभिमान को समाज ने पिछले छह सदियों से याद रखा है. एक किंवदंती की तरह. विद्या के आत्म गौरव के सम्मान की तरह. अयाची के भाई जीवनाथ नव्य न्याय के प्रसिद्द विद्वान भी हुए. परन्तु कुल की विद्वता अयाची पुत्र श्री शंकर मिश्र से अधिक प्रतिष्ठित है.
शंकर को नव्य न्याय में एक विशिष्ट हस्ताक्षर के नाम से जाना जाता है. वाचस्पति मिश्र के समकालिन शंकर ने स्मृति, काव्य नाटक आदि प्रत्येक विधा में अपना योगदान दिया पर, इनकी पहचान नव्य न्याय के दार्शनिक के रुप में है.
नव्य न्याय को भारतीय दर्शन में सबसे क्लिष्ट और तार्किक माना गया है. यह कई बौद्ध और अद्वैत के उत्तर के रुप में भी जाना जाता है. अद्वैत ने ब्रह्म को अज्ञेय, अनाम्य और असंप्रेषणीय माना और ज्ञान को अंतिम चरण में भक्ति के आगे नतमस्तक कर दिया. माया में लिप्त ब्रह्म को इश्वर की संज्ञा दी जिसके आगे ब्रह्म की प्राप्ति ज्ञान से संभव नहीं माना क्योंकि ब्रह्म तो स्व उदभाष्त, अपरिमेय, सत्य से परे वह है जिसका न तो स्वरुप है न ही जिसे किसी भाषा में परिभाषित किया जा सकता है. इसलिये इसे कोई नाम भी नहीं दिया जा सकता. यदि मध्यकालीन भक्ति परंपरा का दार्शनिक आधार कहीं रहा तो वह ज्ञान मार्ग की उपयोगिता और इसकी सीमाओं को भी उतनी ही स्पष्टता से स्थापित करते हुए अद्वैत की तरफ ही जाती है. इसके प्रति उत्तर में नव्य न्याय ने अपने उस थाती की तरफ कदम मोड़े और पुनर्परिभाषित किया जिसमें सबसे अधिक बल ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया पर , पद्धति पर था. जिसका नाम है वह नामेय भी है. जिसका अस्तित्व है वह ज्ञेय भी है. हमारे गांव के शंकर मिश्र जिन्होनें स्वयं को भवनाथ मिश्र के पुत्र के रुप में लिपीबद्द किया वे इसी नव्य न्याय की हस्ती रहे.
ये भी अपने पिता की ही तरह दरबार से दूर ही रहे. इनके समकालीन एक और धुरंधर बाचस्पति मिश्र दरबार से करीब और सभापंडित तो थे पर यह नहीं. हां, अपने पिता के स्वभाव से भिन्न शंकर का काशी में होना तो खैर स्पष्ट ही मिलता है. वहां के कुछ समकालीन प्रभावी पंडितों ने इन्हें बृदोक्ष से संबोधित किया है जिसका सामान्य अर्थ बुढ़ा बैल या सांड है. अर्थात् यह तो तय है कि इनकी घात करने की शक्ति और सामर्थ्य जग जाहिर रहा होगा.
बहरहाल, हम गाम बालों के लिये हमारे गाम ने शंकर और अयाची मिश्र की लीगेसी दो तरह से पिछले छह सदी में दो तरहों से संजोए रखा है। जिसमें एक यह कि जब शंकर महज पांच साल के ही थे तो इनकी ख्याति महाराज तक पहुंची जहां से बुलाबा आया और जहां चुनौति के जवाव में इन्होंने तत्क्षण संस्कृत का एक श्लोक बनाकर सुना दिया। हम बच्चों को पिछले इन सभी सदियों में हमारे परिजन परिवेश ही की तरह पांच साल से बहुत पूर्व ही यह श्लोक मुग्ली घुट्टी की तरह कंठस्थ करबाते आये हैं:
बालोऽहं जगदानंदऽ न मे बाला सरस्वति।
अपूर्णे पंचमे बर्षे बर्णयामि जगत्रियम।।
नव्य न्याय का जानने की पद्धति पर जोर कुछ यूं रहा कि नैयायिकों से आम जन दो कोस दूर रहना बेहतर समझने लगे। नव्य न्याय ज्ञान के स्रोतों में किसी विषय पर चली आ रही ज्ञान या समझ को या सहज भाषा में कहें तो परंपरा को एक महत्वपूर्ण कड़ी तो मानते रहे और इसके लिये जिस पद का व्यवहार होता है वह है 'शब्द' जिसे ज्ञान का महत्वपूर्ण अंग माना गया, पर नैययायिक हर शब्द, परंपरा को भला क्योंकर स्वीकारने लगे। तो दैनिक सामाजिक परंपराओं की कूपमंडूकता को इन नैयायिकों ने, इनके तेज बंशजों ने चुनौतियां भी जम कर दी। समाज ने भी प्रतिउत्तर में लोक हास्य गढ़े। पर, इस सबके मूल में जानने की पद्दति पर जोर, किसी घटना के सुलभ और सरल कारणों को छोड़ भिन्न दृष्टि से देखने की उतकट अभिलाषा रही। एक दफा, एक ऐसे ही उदभट नैयायिक दीर्घ शंका का निपटारा कर रहे थे। जाड़े का मौसम था और ठंड कड़ाके की थी। तो जनाब मोटे से कंबल लपेटे ही बैठ गये शौच करने। निपटारे के बाद जब धोने का समय हुआ तो कांख के नीचे कंबल आने से बार बार प्रयास करने के बाद भी हाथ गुदाद्वार तक पहुंचे ही नहीं। अब भला प्रक्षालन करें तो करें कैसे? मैथिली में जोर से पुकार कर कहने लगे 'किंवा हाथे छोट भ गेल किंबा नदी मार्गहि घुसकि गेल'। या तो हाथ छोटा हो गया या मलद्वार ही जगह से खिंसक गया।
खैर, यह तो एक बात हुई सत्य और ज्ञान की प्राप्ति के जूनून का। सबाल उठाने की संस्कृति का और कहे सुने स्थापित मान्यताओं को बगैर तर्क के अंध स्वीकृति से बचने की परंपरा का जिसकी नींव नव्य न्याय और नैयायिकों ने रखी।
हमारे गाम की दूसरी लीगेसी है गांव के ठीक बीच में स्थित चमैनिया पोखर और उसको खुनबाने बाली चमैन।
जब अयाची के यहां शंकर का जन्म हुआ तो दम्पत्ति के पास दाई/ चमैन को देने के लिये कुछ भी न था। लेकिन जब शंकर को दरबार में ऊपर लिखे श्लोक के लिये पुरस्कार स्वरुप चंद्रहार मिला तो शंकर की मां ने इसे उन्हीं दाई/चमैन को जन्म के पारितोषिक रुप में दे दिया। चमैन भी निर्मोही ही थीं। उन्होंने इस चन्द्रहार की राशि से जन कल्याण हेतु एक जलाशय का निर्माण करबाया जो आज भी खड़ा है। मैंने बचपन गुजर जाने के बहुत बाद जब अनुपम मिश्र की किताब आज भी खड़ें हैं तालाब पढ़ा तो बारबार मन अपने गाम के इस चमैनिया पोखर और चमैन की तरफ चला जाता था। अनुपम जी ने ऐसे कई उदाहरण दिये हैं, देश के कोने कोने से। और हमें अभिमान रहा कि हम इसी संस्कृति की उदात्तता के साये तले पले बढ़े। जैसे उन्होंने अपने भौतिक सुख की परबाह किये बगैर गाम की कल्याण को सर्बोपरि माना, गाम ने भी उनकी समृति में आज अयाची के साथ उतनी ही प्रतिष्ठा दी।
गौर तलब हो कि दोनो ही अपने नाम से नहीं समृति में बने रहे; बहुत हाल तक मुझे अयाची मिश्र का मूल नाम भवनाथ मिश्र नहीं ज्ञात था और यह मैं गांव की जातिगत व्यवस्था पर पर्दा डालने के लिये नहीं लिख रहा। वह तो भारतीय समाज की हकीकत के रुप में हमेशा ही रहा। पर, सामाजिक समरसता का एक सुखद पहलु भी तो यहां है ही जिसे रेखांकित करने की जरूरत है। मैं इन दिनो मैथिली में इन्हीं चमैन, अयाची और नव्य न्याय तथा पोखैर को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखने का प्रयत्न भी कर रहा हूं जिसमें शायद समय के साथ बदलते रहे जातिगत सरोकारों पर नये सिरे से सोच पाऊं।पर, वह तो बाद की बात है। आज तो हमारे गाम में समारोह हो रहे हैं।
संस्कृत के बिद्वान अयाची और नामहीन चमैन की स्मृति के सम्मान में आज बिहार के मुख्य मंत्री नीतिश कुमार ने दोनो की प्रतिमा का अनावरण किया। गांव के निवासियों ने बगैर किसी सरकारी अनुदान के आपसी सहयोग से ही एक भव्य और विशाल समारोह का आयोजन किया है जिसमे देश के अनेक नैयायिक और बिद्वजन शामिल हुए हैं। गोष्ठियां और चर्चों का आयोजन है। शास्रीय के साथ लौकिक पक्षों पर बहस होंगी। काश कुछ शब्द मैं भी जी पाता वहां रह कर। सबके साथ!