अपने गांव से दूर रहने का इतना दुख कभी नहीं हुआ जितना आज हो रहा है.
बिहार के मधुबनी जिले का सरिसब पाही गांव. यहां चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध -पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में पंडित भवनाथ मिश्र है जिन्हे उनके कभी न याचना करने के स्वभाव के कारण अयाची के नाम से जाना गया.अपने सवा कट्ठे के बासडीह से उपजे शाक सब्जी से गुजर बसर कर इस अयाची दंपत्ति का जीवन यापन हुआ करता.
यूं तो संस्कृत के किताबों में ब्राह्मण हमेशा निर्धन ही चित्रित होते आये हैं परंतु ब्राह्ण इन्हीं दंत कथाओं और इसी धार्मिक साहित्य में अपने असंतुष्ट एवं याचक प्रवृति के लिये अभिशप्त भी रहा है. ऐसे में अयाची होना और विद्वता होते हुए भी राजदरबार से दूर, याचन से दूर, लक्ष्मी से दूरी जिंदगी भर निभा जाना मामूली तो नहीं. इस अयाचना के स्वाभिमान को समाज ने पिछले छह सदियों से याद रखा है. एक किंवदंती की तरह. विद्या के आत्म गौरव के सम्मान की तरह. अयाची के भाई जीवनाथ नव्य न्याय के प्रसिद्द विद्वान भी हुए. परन्तु कुल की विद्वता अयाची पुत्र श्री शंकर मिश्र से अधिक प्रतिष्ठित है.
शंकर को नव्य न्याय में एक विशिष्ट हस्ताक्षर के नाम से जाना जाता है. वाचस्पति मिश्र के समकालिन शंकर ने स्मृति, काव्य नाटक आदि प्रत्येक विधा में अपना योगदान दिया पर, इनकी पहचान नव्य न्याय के दार्शनिक के रुप में है.
नव्य न्याय को भारतीय दर्शन में सबसे क्लिष्ट और तार्किक माना गया है. यह कई बौद्ध और अद्वैत के उत्तर के रुप में भी जाना जाता है. अद्वैत ने ब्रह्म को अज्ञेय, अनाम्य और असंप्रेषणीय माना और ज्ञान को अंतिम चरण में भक्ति के आगे नतमस्तक कर दिया. माया में लिप्त ब्रह्म को इश्वर की संज्ञा दी जिसके आगे ब्रह्म की प्राप्ति ज्ञान से संभव नहीं माना क्योंकि ब्रह्म तो स्व उदभाष्त, अपरिमेय, सत्य से परे वह है जिसका न तो स्वरुप है न ही जिसे किसी भाषा में परिभाषित किया जा सकता है. इसलिये इसे कोई नाम भी नहीं दिया जा सकता. यदि मध्यकालीन भक्ति परंपरा का दार्शनिक आधार कहीं रहा तो वह ज्ञान मार्ग की उपयोगिता और इसकी सीमाओं को भी उतनी ही स्पष्टता से स्थापित करते हुए अद्वैत की तरफ ही जाती है. इसके प्रति उत्तर में नव्य न्याय ने अपने उस थाती की तरफ कदम मोड़े और पुनर्परिभाषित किया जिसमें सबसे अधिक बल ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया पर , पद्धति पर था. जिसका नाम है वह नामेय भी है. जिसका अस्तित्व है वह ज्ञेय भी है. हमारे गांव के शंकर मिश्र जिन्होनें स्वयं को भवनाथ मिश्र के पुत्र के रुप में लिपीबद्द किया वे इसी नव्य न्याय की हस्ती रहे.
ये भी अपने पिता की ही तरह दरबार से दूर ही रहे. इनके समकालीन एक और धुरंधर बाचस्पति मिश्र दरबार से करीब और सभापंडित तो थे पर यह नहीं. हां, अपने पिता के स्वभाव से भिन्न शंकर का काशी में होना तो खैर स्पष्ट ही मिलता है. वहां के कुछ समकालीन प्रभावी पंडितों ने इन्हें बृदोक्ष से संबोधित किया है जिसका सामान्य अर्थ बुढ़ा बैल या सांड है. अर्थात् यह तो तय है कि इनकी घात करने की शक्ति और सामर्थ्य जग जाहिर रहा होगा.
बहरहाल, हम गाम बालों के लिये हमारे गाम ने शंकर और अयाची मिश्र की लीगेसी दो तरह से पिछले छह सदी में दो तरहों से संजोए रखा है। जिसमें एक यह कि जब शंकर महज पांच साल के ही थे तो इनकी ख्याति महाराज तक पहुंची जहां से बुलाबा आया और जहां चुनौति के जवाव में इन्होंने तत्क्षण संस्कृत का एक श्लोक बनाकर सुना दिया। हम बच्चों को पिछले इन सभी सदियों में हमारे परिजन परिवेश ही की तरह पांच साल से बहुत पूर्व ही यह श्लोक मुग्ली घुट्टी की तरह कंठस्थ करबाते आये हैं:
बालोऽहं जगदानंदऽ न मे बाला सरस्वति।
अपूर्णे पंचमे बर्षे बर्णयामि जगत्रियम।।
अपूर्णे पंचमे बर्षे बर्णयामि जगत्रियम।।
नव्य न्याय का जानने की पद्धति पर जोर कुछ यूं रहा कि नैयायिकों से आम जन दो कोस दूर रहना बेहतर समझने लगे। नव्य न्याय ज्ञान के स्रोतों में किसी विषय पर चली आ रही ज्ञान या समझ को या सहज भाषा में कहें तो परंपरा को एक महत्वपूर्ण कड़ी तो मानते रहे और इसके लिये जिस पद का व्यवहार होता है वह है 'शब्द' जिसे ज्ञान का महत्वपूर्ण अंग माना गया, पर नैययायिक हर शब्द, परंपरा को भला क्योंकर स्वीकारने लगे। तो दैनिक सामाजिक परंपराओं की कूपमंडूकता को इन नैयायिकों ने, इनके तेज बंशजों ने चुनौतियां भी जम कर दी। समाज ने भी प्रतिउत्तर में लोक हास्य गढ़े। पर, इस सबके मूल में जानने की पद्दति पर जोर, किसी घटना के सुलभ और सरल कारणों को छोड़ भिन्न दृष्टि से देखने की उतकट अभिलाषा रही। एक दफा, एक ऐसे ही उदभट नैयायिक दीर्घ शंका का निपटारा कर रहे थे। जाड़े का मौसम था और ठंड कड़ाके की थी। तो जनाब मोटे से कंबल लपेटे ही बैठ गये शौच करने। निपटारे के बाद जब धोने का समय हुआ तो कांख के नीचे कंबल आने से बार बार प्रयास करने के बाद भी हाथ गुदाद्वार तक पहुंचे ही नहीं। अब भला प्रक्षालन करें तो करें कैसे? मैथिली में जोर से पुकार कर कहने लगे 'किंवा हाथे छोट भ गेल किंबा नदी मार्गहि घुसकि गेल'। या तो हाथ छोटा हो गया या मलद्वार ही जगह से खिंसक गया।
खैर, यह तो एक बात हुई सत्य और ज्ञान की प्राप्ति के जूनून का। सबाल उठाने की संस्कृति का और कहे सुने स्थापित मान्यताओं को बगैर तर्क के अंध स्वीकृति से बचने की परंपरा का जिसकी नींव नव्य न्याय और नैयायिकों ने रखी।
हमारे गाम की दूसरी लीगेसी है गांव के ठीक बीच में स्थित चमैनिया पोखर और उसको खुनबाने बाली चमैन।
जब अयाची के यहां शंकर का जन्म हुआ तो दम्पत्ति के पास दाई/ चमैन को देने के लिये कुछ भी न था। लेकिन जब शंकर को दरबार में ऊपर लिखे श्लोक के लिये पुरस्कार स्वरुप चंद्रहार मिला तो शंकर की मां ने इसे उन्हीं दाई/चमैन को जन्म के पारितोषिक रुप में दे दिया। चमैन भी निर्मोही ही थीं। उन्होंने इस चन्द्रहार की राशि से जन कल्याण हेतु एक जलाशय का निर्माण करबाया जो आज भी खड़ा है। मैंने बचपन गुजर जाने के बहुत बाद जब अनुपम मिश्र की किताब आज भी खड़ें हैं तालाब पढ़ा तो बारबार मन अपने गाम के इस चमैनिया पोखर और चमैन की तरफ चला जाता था। अनुपम जी ने ऐसे कई उदाहरण दिये हैं, देश के कोने कोने से। और हमें अभिमान रहा कि हम इसी संस्कृति की उदात्तता के साये तले पले बढ़े। जैसे उन्होंने अपने भौतिक सुख की परबाह किये बगैर गाम की कल्याण को सर्बोपरि माना, गाम ने भी उनकी समृति में आज अयाची के साथ उतनी ही प्रतिष्ठा दी।
गौर तलब हो कि दोनो ही अपने नाम से नहीं समृति में बने रहे; बहुत हाल तक मुझे अयाची मिश्र का मूल नाम भवनाथ मिश्र नहीं ज्ञात था और यह मैं गांव की जातिगत व्यवस्था पर पर्दा डालने के लिये नहीं लिख रहा। वह तो भारतीय समाज की हकीकत के रुप में हमेशा ही रहा। पर, सामाजिक समरसता का एक सुखद पहलु भी तो यहां है ही जिसे रेखांकित करने की जरूरत है। मैं इन दिनो मैथिली में इन्हीं चमैन, अयाची और नव्य न्याय तथा पोखैर को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखने का प्रयत्न भी कर रहा हूं जिसमें शायद समय के साथ बदलते रहे जातिगत सरोकारों पर नये सिरे से सोच पाऊं।पर, वह तो बाद की बात है। आज तो हमारे गाम में समारोह हो रहे हैं।
संस्कृत के बिद्वान अयाची और नामहीन चमैन की स्मृति के सम्मान में आज बिहार के मुख्य मंत्री नीतिश कुमार ने दोनो की प्रतिमा का अनावरण किया। गांव के निवासियों ने बगैर किसी सरकारी अनुदान के आपसी सहयोग से ही एक भव्य और विशाल समारोह का आयोजन किया है जिसमे देश के अनेक नैयायिक और बिद्वजन शामिल हुए हैं। गोष्ठियां और चर्चों का आयोजन है। शास्रीय के साथ लौकिक पक्षों पर बहस होंगी। काश कुछ शब्द मैं भी जी पाता वहां रह कर। सबके साथ!
आज अपने वंश के इतिहाश को जानकार बहुत अच्छा लगा । मैं भी श्री अयाची मिश्र का वंशज हूँ। मेरा मूल सोदरपुरिये सरसों है।
ReplyDeleteji mujhe bhi pane sodarpuriye sarso hone par Garv hai.
Deleteमिथिला गौरव अयाची मिश्र।मिथिला अस्मिता शंकर मिश्र।जय हो जय हो जय हो।
ReplyDeleteJi mujhe bhi bahut achha laga apne gow par garv hai ,sir aapne maa sidheswari aur baba sidheswarnath ka gekar nhi kiye
ReplyDeleteआयाची मिश्र जी के आगे का वंश वृक्ष हो तो देने का कष्ट करें 🙏🙏🙏
ReplyDeleteजिस तरह प्राचीन काल में सरिसब पाही विद्या और विद्वानों का क्षेत्र था उसके विपरीत वर्तमान में सारा इतिहास धूमिल हो रहा है चारों ओर कुरीतियों का अंबार है चारों ओर अपराधिक गतिविधियों का गढ़ है, 20 वीं सदी में प्रवेश के बाद कोई भी कीर्तिमान स्थापित नहीं हुआ है।
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